वर्ग विभेद की भाषा व योजनाएं
मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया और अब स्टार्ट अप इंडिया। ऐसा लगता है मानो भारत पूरी तरह से इंडिया बनकर ही दम लेगा। यह वर्तमान समय की भारी विडंबना है कि एक स्वतंत्र सार्वभौम देश अपनी तमाम भाषाओं को भूलकर उस भाषा पर फिदा हुए जा रहा है जो भारत को अपना उपनिवेश बना लेने वालों की भाषा थी। हमें अंग्रेजी भाषा से कोई एतराज नहीं है बल्कि उस भाषा के समृद्ध साहित्य को हम विश्व धरोहर मानते हैं। किन्तु जब वही भाषा देश को दो वर्गों में बांटने का औजार बन जाए तो चिंता होना स्वाभाविक है। यह विडंबना उस समय और गहरी हो जाती है जब हम देखते हैं कि जो राजनीतिक वर्ग बात-बात में मैकाले को धिक्कारता था आज उसी के शासनकाल में उपरोक्त नामकरण हो रहे हैं।
हमें यह देखकर कौतुक भी होता है कि मोदीराज आने के बाद जो लोग संस्कृत का गुणगान करने से नहीं थकते थे आज उन उत्साहियों को कहीं कोई भाव नहीं मिल रहा।
इस विडंबना का एक और रूप भी है। पिछले दो-तीन दशकों में हमने धीरे-धीरे कर शब्दों के संक्षिप्तिकरण अथवा एक्रोनिम को व्यवहार में लाने का रास्ता चुन लिया है। यह काम स्वाभाविक ढंग से नहीं हुआ है। इस देश के अंग्रेजीदां नौकरशाहों द्वारा जानबूझ कर संस्थाओं, कार्यक्रमों और योजनाओं के नाम इस ढंग से रखे जा रहे हैं कि उनका पूर्णता में प्रयोग संभव ही न हो तथा मजबूर होकर संक्षिप्त संज्ञाओं का उपयोग करना पड़े। इसके कारण तथाकथित रूप से अधिक पढ़े और कम पढ़ों के बीच एक खाई पैदा होते जा रही है। आप देश की अस्सी फीसदी आबादी के सामने कोई योजना लेकर जाते हैं और संक्षिप्त नाम से समझाते हैं। ऐसे में आम नागरिक पूरे नाम से परिचित न होने के कारण उसके उद्देश्य को कभी भी पूरी तरह से समझ नहीं पाता। ये दूसरी बात है कि सुनने में ये नाम लुभावने लगते हैं मसलन नीति आयोग या मुद्रा बैंक।
इन दिनों आप यदि अखबारों को देखें और उनमें छपी सरकारी विज्ञप्तियों को तो ऐसी कितनी ही संक्षिप्त संज्ञाओं से आप रूबरू हो सकते हैं। जो पत्रकार इन समाचारों को बनाते हैं वे भी नहीं जानते कि इनका अर्थ और प्रयोजन क्या है। कहने का आशय यह कि भाषा जिसका प्रमुख काम संवाद स्थापित करना है, लोगों के बीच आपसी समझ बढ़ाना है, वही भाषा वर्ग विभेद पैदा करने का कारक बनते जा रही है। सच तो यह है कि इस देश का शासक वर्ग यही चाहता है। यहां शासक वर्ग से हमारा आशय मुख्यत: नौकरशाहों से है। यह भी एक विपर्यय है कि भारत में जनतांत्रिक राजनीति का जैसे-जैसे विकास हो रहा है वैसे-वैसे ही सत्तातंत्र पर नौकरशाही का शिकंजा और मजबूत होते जा रहा है। आज की राजनीति तात्कालिक लाभ पर केन्द्रित हो गई है और उसमें लोभी, लालची राजनेताओं का मार्गदर्शन चतुर, चालाक नौकरशाह करने लगे हैं। ये भी खुश, वे भी खुश। नौकरशाहों को जनता से कोई लेना-देना नहीं और जिन्हें जनता से लेना-देना है वे पांच साल का लाइसेंस लेकर मदमत्त हुए चलते हैं।
देश के प्रधानमंत्री भाषण देने की कला में निष्णात हैं। कभी-कभी लगता है कि अगर वे अभिनय जगत में गए होते तो वहां उनसे बढ़कर प्रतिभाशाली कोई और सिद्ध न होता। प्रधानमंत्री पिछले दो साल से लगातार चुनावी मनोदशा में ही हैं। वे देश-विदेश में कहीं भी पुरानी सरकार की खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आते। उन्होंने चुनाव के पूर्व बड़ी-बड़ी घोषणाएं की थीं, लेकिन अब वे जनता से समय मांगने लगे हैं। दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर उन्हें देश की वास्तविकताओं का अनुमान कुछ बेहतर तरीके से लग रहा होगा। इसके बावजूद उनकी सरकार का जैसा कामकाज चल रहा है उसे देखकर कई बार ऐसी शंका होती है कि उनके हाथ-पैर बंधे हुए हैं। वे संघ परिवार के गणों द्वारा जनतांत्रिक मूल्यों की निरंतर हो रही हत्या पर मौन साधे रहते हैं। दूसरी ओर वे जो कार्यक्रम और योजनाएं दे रहे हैं उनमें से अधिकतर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा पूंजी बाजार द्वारा प्रवर्तित की गई प्रतीत होती हैं। इस तरह दोनों तरफ से देश में वर्गभेद लगातार पनप रहा है।
यूपीए के दौरान भाजपा द्वारा कांग्रेस का बहुत उपहास किया जाता था। यह कहा जाता था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं जबकि सत्ता के वास्तविक सूत्र श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों केन्द्रित है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाना तो मानो फैशन ही बन गया था और है। फिर भी उस दौर के टीवी पर अनगिनत दृश्य दर्शकों को स्मरण होंगे कि सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह के साथ शिष्टाचार बरतने में हमेशा आवश्यक सावधानी बरती। उन्हें जब भी बात करना हुई तो वे स्वयं प्रधानमंत्री निवास तक गईं तथा पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के अलावा कभी भी उन्होंने मुख्य आसंदी ग्रहण नहीं की। लेकिन इस सरकार में क्या हो रहा है यह लोग दैनंदिन देख रहे हैं। संघ कार्यालय से बुलावा आता है और बड़े-बड़े मंत्री वहां हाजिरी लग
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