मोदी के पीएम बनते ही क्यों लुभावना हुआ भारत
न्यू यॉर्क
जब से नरेंद्र मोदी ने देश की कमान संभाली है तब से दुनिया के बेहद महत्वूर्ण लोग भारत के प्रति अपने प्रेम का इजहार कर रहे हैं। मानो मोदी कोई टीनेज बॉय हों जिनके लिए प्रेमिकाएं खुद को रोक न पा रही हैं। एक महीने से भी कम समय में मोदी जापान की पांच दिवसीय यात्रा पर गए। इस दौरान मोदी का जापान में अप्रत्याशित रूप से स्वागत किया गया। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे आमतौर पर अनमने व्यवहार के लिए जाने जाते हैं लेकिन मोदी को उन्होंने ने बिल्कुल अप्रत्याशित रूप से गले लगाया।
अपनी जमीन पर मोदी ने चीनी प्रेजिडेंट शी चिनफिंग की मेहमाननवाजी की। चीन ने खुलकर कहा कि वह भारत को प्रगति का पार्टनर बनाना चाहता है। दोनों देशों ने साथ मिलकर तरक्की की बुनियाद बनाने की प्रतिबद्धता जताई। इसके बाद भारत में कई मजबूत देशों के नेता आए। ओबामा से लेकर जर्मनी के चांसलर तक भारत पहुंचे। मोदी ने भी लगभग सभी ताकतवर देशों की यात्रा की। भारत में अफ्रीकी देशों का सम्मेलन हुआ। इसी हफ्ते अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि मोदी ईमानदार और दूरदर्शी नेता हैं।
आखिर मोदी क्यों इतने लोकप्रिय हुए? इस सवाल का जवाब हम इस प्रश्न में तलाश सकते हैं कि राजनीतिक और आर्थिक रूप से एशिया किस कदर बदल रहा है। 1980 के दशक की शुरुआत में चीन के सर्वोपरि नेता रहे डेंग जियाओपींग ने उल्लेखनीय आर्थिक चमत्कार किया था। ऐसा उन्होंने तब किया था जब शीत युद्ध के कारण दुनिया कई धुवों में बंटी थी। ऐसे समय में उन्होंने अपने देश में आर्थिक बुनियाद को दुरुस्त करने काम किया था। एशियन डिवेलपमेंट बैंक के मुताबिक एशियाई देशों के बीच व्यापार 2013 में उनके कुल व्यापार का 50 पर्सेंट रहा। यह 1985 के मुकाबले 30 पर्सेंट ज्यादा है।
लेकिन चीन ने पूंजी बढ़ाने के लिए अपनी राजनीतिक और सैनिक ताकत को बढ़ा लिया है। ऐसे में एशिया एक बार फिर से दो कैंपों में विभाजित होता दिख रहा है। एक कैंप चीन केंद्रित है और दूसरा अमेरिका के साथ उसके सहयोगी जिनमें जापान, साउथ कोरिया और फिलिपिन्स शामिल हैं। दोनों कैंप इस इलाके में अपने समर्थन का आधार बढ़ाना चाहते हैं। पूर्व चीन सागर के द्वीप में टोकियो का पेइचिंग से विवाद की स्थिति है। इसे लेकर दोनों देशों में तनाव भी है। ऐसे में यह कैंप चीन को रोकने के लिए अपने नेटवर्क का दायरा बढ़ाना चाहता है। हालांकि चीन का लक्ष्य है कि खुद को ताकतवर बना एशिया में अमेरिका के प्रभाव को कम करे।
इस नई भू-राजनीतिक पावर गेम में इंडिया बेहद अहम बन गया है। भारत एक उभरता हुआ ताकत है। भारत के पास नए बिजनस के लिए व्यापक संभावित स्रोत हैं। ऐसे में नई दिल्ली इस मौके को हाथ से जाने नहीं देगी। भारत इस स्थिति को अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश करेगा। दोनों कैंपों की तरफ से बेहतरीन पिच तैयार करने की कोशिश की जा रही है। जापानी पीएम आबे ने असामान्य रूप से टोकियो से ऐतिहासिक सिटी क्योटो की यात्रा कर मोदी का स्वागत करने पहुंचे थे। शी भी सारे जोखिमों को उठाते हुए पीएम मोदी के गृह राज्य गुजरात पहुंत थे। वहां उन्होंने एक भारतीय शैली की बनियान पहनी। आबे ने मोदी से 33 बिलियन डॉलर निवेश का वादा किया। शी के बारे में कहा जा रहा है उन्होंने भी 100 बिलियन डॉलर के पैकेज का लालच दिखाया।
विशुद्ध आर्थिक जमीन पर मोदी और शी को फायदे का सौदा नजर आया। दोनों देशों के बीच व्यापार में भारी बढ़ोतरी हुई है। 1996 में 1.2 बिलियन डॉलर का व्यापार 2013 में 66 बिलियन डॉलर पहुंच गया। दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध यदि जारी रहेगा तो चीनी कंपनियों को मजबूती मिलेगी। यह ग्लोबल इन्वेस्टर्स और चीनी उपभोक्ताओं के साथ ग्राहकों के लिए भी बेहद अहम है। दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले दो देशों की आर्थिक जरूरतें और दिलचस्पी एक जैसी हैं।
इनकी कंपनियां उभरती इकॉनमी और उभरते उपभोक्ताओं को अपने-अपने बाजार में आकर्षित करने के लिए अभ्यस्त हैं। उदाहरण के लिए चीन की श्याओमी भारतीय ग्राहकों को लुभाने में बेहद सफल रही। उसी तरीके से स्मार्टफोन के मामले में यह कंपनी चीन में भी सफल रही। ऐसे में मोदी की बुद्धिमानी क्या होगी? क्या वह जापान के मुकाबले दुनिया की उभरती ताकत चीन को पनाह देंगे या किसी एक को किनारे करेंगे? चीन और भारत के साथ को 'चींडिया' टर्म भी दिया जा रहा है।
लेकिन चीन और इंडिया का रिश्ता इससे कहीं ज्यादा जटिल है। 1947 में आजादी के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सोचा था कि वह कॉम्युनिस्ट चीन को दोस्त बनाएंगे। इसी इरादे के साथ हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भी दिया गया। हालांकि यह उम्मीद चारों खाने चित हो गई। तिब्बत के दलाई लामा को भारत ने पनाह देकर चीन को चिढ़ाना शुरू किया। चीन दलाई लामा को खतरनाक अलगाववादी मानता है।
दलाई लामा भारत में निर्वासित जीवन जी रहे हैं। यहां तक कि मोदी ने भी पिछले साल मई में शपथ ग्रहण समारोह में तिब्बत के निर्वासित प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया था। सीमा विवाद के कारण भी दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव रहता है। 1962 में दोनों देशों के बीच सरहद को लेकर भीषण युद्ध हुआ था। इसे लेकर आज भी सरहद पर तनाव की स्थिति रहती है। चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है। चीन से भारत हमेशा इन अनसुलझे मुद्दों पर परेशान रहता है। चीनी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान ही चीनी सैनिकों ने लद्दाख में सकड़ बनाने का काम शुरू कर दिया था। अपनी बातचीत के दौरान भी चीन से पीएम मोदी ने सीमा विवाद को सुलाझाने को कहा था।
मोदी के दिमाग में ये सारी बातें जरूर होंगी। मोदी अपनी मिलिटरी को ताकतवर बनाने पर भी काफी जो दे रहे हैं। आबे से मुलाकात के दौरान भी भारत और जापान में मिलिटरी साझेदारी बढ़ाने पर बात हुई थी। नई दिल्ली और वॉशिंगटन में मिलिटरी संबंधो को मजबूत करने पर बात हो रही है। मोदी ने कमान संभालते ही डिफेंस सेक्टर में विदेशी निवेश पर अड़चनों को खत्म कर दिया। ऐसा उन्होंने डिफेंस में टेक्नॉलजी और प्रॉडक्शन क्षमता बढ़ाने की मंशा से किया है। मोदी हर तरह की मिलिटरी मजबूती को रेखांकित कर रहे हैं। मोदी ने चीन को लेकर जापान में दो टूक कहा था कि 18वीं सदी की साम्राज्यावादी मानसिकता नहीं चलेगी।
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